Friday, June 1, 2012

नानी का आँगन

 गर्मी आते ही तुम्हारा घर आ जाता है यादों में नानी ,कितने प्यारे दिन थे वो जब गर्मी से डर नहीं लगता था उसका इंतज़ार होता था कि कब गर्मी आएगी और छुटियाँ होंगी ,उन छुतियों का मतलब होता था तुम्हारे घर जाना 
       आज भी याद है मुझे अच्छी तरह से वो सब दिन जो तुम्हारे आँगन में खेल खेलते बिताए थे ,तुम्हारा आँगन भी तो कितना बड़ा था आजकल की एक पूरी गली उसमे समां जाती और तुमने भी कितने गन्ने के पौधे लगा दिए थे हमारे लिए ,कि हम सब आयें तो लू न लगे और दांत भी मजबूत रहे ,कैसे फुसला कर हमे गन्ने खुद छील कर खाने पर मजबूर कर देती थी तुम और हम सब तुम्हारी बातो में आ कर फटाफट छील कर खाते थे ,मौसी भी आ जाती थी तब वहाँ बस और क्या चाहिए था भगवन से तब ,माँ और मौसी की कभी न खतम होनेवाली बाते और तुम्हारा हम सब के पीछे भागना ,गुड्डी और चिंटू भी मौसी के साथ ही आते थे और हमारा रंग जम जाता था ,माँ और मौसी को तब हम चारो की फिकर कहाँ होती थी ,और यही तो हम चाहते थे की उन्हें हमारा ख्याल भी न आये ,हम कितना खेलते थे कभी धुप या गर्मी नहीं लगी थी बस दिन रात खेल ही खेल  ,और रात को थक कर बेसुध सोना ,सुबह कैसे आँख खुलती थी ये तो मै शायद कभी नहीं भूल पाऊँगी  ,तुम्हारे आँगन के कुंए पर पानी भारती औरतो की आवाजे और तुम्हारा माखन बिलोने की आवाज़ और इस आवाज़ को सुन कर कैसे मै भागती थी और तुमसे नाराज़ होती थी की मुझे क्यों नहीं उठाया माखन मैंने बिलोना था और तुम कैसे हस कर मेरे मुंह में माखन भर देती थी ,उन दिनों में तो माँ के हाथ की रोटी भी अच्छी नहीं लगती थी ,तुम बनाती थी हम सब के लिए मिटटी के चूल्हे पर ,जैसी हम लोग मांगते वैसी ही कभी तिकोनी कभी चकोर और न जाने क्या क्या लेकिन तुम्हे कभी गुस्सा नहीं आता था ,एक और भी मज़े की बात थी तुम परंथी के साथ माखन आचार और चाय देती थी जो माँ ने कभी नहीं दी थी लेकिन तुम भी खराब थी लस्सी बहुत पिलाती थी और वो भी नमकीन लेकिन उस छाछ का एक अनूठा स्वाद था जो आज भी जुबान पर है ,नाना जी सुबह सुबह साइकल पर जा कर डबलरोटी लाते थे की नाती नातिन सभी शहर से आयें हैं ,सच बताऊँ वो हम लोग कभी नहीं खाते थे तुम्हारे हाथ के परांठो के आगे डबलरोटी छी ..हम सब चुपके से आँगन में बंधी गाये को खिला देते थे वो 
          आह काश वो दिन फिर से आ जाते ,नाना जी तो खूब सारे आम भी लाते थे दोपहर को जो हम लोग तुम्हे छिलने भी नहीं देते थे वैसे चूस लेते थे और सारे आँगन में गंद ड़ाल देते थे ,और जैसे ही मखियाँ आती हम सब भाग जाते छत पर ,तुम नौकर से क्या नाम था उसका याद नहीं आ रहा हाँ मै उसे कलम दवात कहती थी पता नहीं क्यों ,वो बेचारा तुम्हे डाँट खता और सब सफाई करता था 
         तब कहाँ धुप लगती थी और कहाँ गर्मी खेलने के लिए समये ही कम पड़ जाता था ,आज कूलर के आगे भी बैठो तो पसीने छूटते हैं ,गर्मी के नाम से डर लगता है ,
     नानी तुम्हारी इतनी बाते हैं की एक बार में तो शायद लिख नहीं पाऊँगी ,कितना भी लिखूंगी बाते खतम नहीं होंगी ,बहुत याद आती हो नानी और तुम्हारा प्यार दुलार सब ,अच्छा एक वडा करती हूँ जब जब गर्मी ज्यादा लगेगी तुम्हारा आँगन और उनमे बसी यादो को कागज पैर समेत लिया करुँगी इससे शायद गर्मी रहत मिले न मिले मन को जरुर मिलेगी ,जल्दी ही तुम्हारी दूसरी यादे भी लिखूंगी मेरी प्यारी नानी ........              

5 comments:

  1. nani ka aangan bhulaye nhi bhulta....bahut hi pyara varnan.......

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  2. प्यारी यादें ....नहीं भूलता वो नानी का आँगन ..

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना

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